हिन्दी की मौजूदगी बढ़ी है, लेकिन…
रवि रावत
एक वक्त जब हावी होने लगी, तो लगा कि अब हिन्दी पर खतरा है| हिन्दी का भविष्य बहुत लंबा नहीं है और जल्द ही यह विलुप्त भाषा की श्रेणी में आ जाएगी| फिर सोशल मीडिया की बाढ़ आई| बाढ़ अपने साथ सिर्फ तबाही ही नहीं लाती है, बल्कि ज़मीन को उपजाऊ बनाने चीजें भी साथ लेकर आती है| यही हिन्दी के साथ भी हुआ| एकाएक हिन्दी ग्लोबल होने लगी| हिन्दी का बोलबाला हो गया| नए कहानीकार पैदा हो गए| इतने ऑनलाइन प्लैटफॉर्म आ गए कि उन लोगों को भी लिखने का मौका मिलने लगा, जिन्हें बड़ी पत्र-पत्रिकाएं नकार दिया करती थीं| शुरू हुए, तो लोग अपनी भावनाएं कविता के ज़रिए पेश करने लगे| जिन बड़े साहित्यकारों को हम भूलने लगे थे, वे याद किए जाने लगे| उनकी रचनाएं ऑनलाइन प्लैटफॉर्म पर आने लगीं| सोशल मीडिया की ही देन ही जॉन एलिया अचानक युवाओं में मशहूर हो गए, वरना इससे पहले उनका नाम भी नहीं जानते होंगे| सिर्फ हिन्दी कहना तो गलत होगा, भारत की हिंदुस्तानी जुबान है| ऐसे में, कहा जा सकता है कि हिंदुस्तानी जुबान एक बार भी उठ खड़ी हुई|
हर चीज़ के कुछ साइड इफेक्ट्स भी होते हैं| हिन्दी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो है| अगर हिन्दी का दायरा बढ़ा है, तो कुछ कमियां भी सामने आई हैं| लोगों को जब लिखने के टूल मिल गए, तो उनका इस्तेमाल भी अंधाधूंध होने लगा और लोग कुछ भी लिखने लगे| पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं छपने से पहले कई फिल्टर लगे होते हैं| उप संपादक होते संपादक होते हैं| कहानियों का चयन किया जाता है और अगर छपने लायक हुई, तो ही उन्हें प्रेस में भेजा जाता है| ऑनलाइन में कोई फ़िल्टर नहीं है| जैसी रचना आई, वैसी छप गई| इससे हो यह रहा है कि रचनाओं का खरपतवार भी आ गया है| पहले जिसे साहित्य कहा जाता था और यदा-कदा ही बुक स्टॉल्स पर दिखता था, वह अब खूब दिखाई दे रहा है| भाषाई स्तर भी गिरा है| ऑनलाइन लिखने वालों में ज़्यादातर वे ’लेखक’ हैं, जिन्हें पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है| यही वजह है कि उनका शब्द भंडार बेहद सीमित है|
इससे इतर बहुत अच्छा काम भी हो रहा है| अब भी अच्छी कहानियां, अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैं| यह खुश होने वाली और उम्मीद बंधाने वाली बात ही है कि युवाओं तक बाबा नागार्जुन, प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, जयशंकर प्रसाद, कालीदास, भवानी प्रसाद मिश्र, महादेवी वर्मा और न जाने ही बड़े साहित्यकार रील के माध्यम से ही सही, पहुंच तो रहे हैं| युवाओं को पता तो चल रहा है कि हिन्दी में कितना कुछ लिखा गया है| इससे नए लेखकों को प्रेरणा मिल रही है| बड़े शहरों में ओपन माइक जैसे प्रोग्राम इस बात का सबूत हैं कि पढ़ने और लिखने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है| बस, यह ध्यान रखना होगा कि खरपतवार को किनारे करके हिन्दी की अच्छी फसल को बचाना है|