અહીં ગંગા દશેરાનો મોટો મહિમા છે, વર્ષમાં એકવાર ગંગા દશમીના દિવસે મંંદિરમાંથી ગંગાની મૂર્તિ ગંગા કિનારે લવાય

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જૈન સાધુની હિમાલય યાત્રા -આચાર્ય વિજય શ્રી હાર્દિકરત્નસૂરિજી

(ગતાંકથી ચાલુ)
ગંગોત્રી
જેઠ સુદ ૧૦, ગુરુવાર,
તા. ૨૪-૦૫-૨૦૧૮
આજે સવારે ૬.૦૦ વાગ્યે ભોજવાસાથી વિદાય લીધી. હજુ તો ૫૦ ડગલા ચાલ્યા ત્યાં એક નાનો છોડવો નજરે ચડ્યો જાણે આખો છોડ કાચનો બનેલો હોય તેમ ચમકતો હતો. આશ્ર્ચર્ય થયું. એકદમ પાસે જઈને જોયું તો બધી ડાળીઓ પર બરફ જામેલો હતો. રાત્રે બરફનો વરસાદ પડ્યો હશે. ઝાડ બરફનું થઈ ગયું. અમે એનું નામ આપ્યું ‘કાચનું ઝાડ’ નજરો ને બલાત્ ત્યાંથી હટાવવી પડી. સંજીવની બુટ્ટીની કાકાની દીકરી બેન એવી આ અલૌકિક વનસ્પતિનું આકર્ષણ ઘણા સમય સુધી રહ્યું. જાણે અમને કહેતી હોય. ‘મને સાથે લઈ જાવ’ પણ એ શક્ય બન્યું નહીં. ગંગોત્રી અરણ્યમાંથી એક પાંદડું પણ લેવાની મનાઈ છે. હજુ ૧૪ કિ.મી. ચાલવાનું બાકી છે. એક વાતની નિરાંત હતી હવે નીચે ઊતરવાનું જ હતું. અમે ચાલ્યા, રસ્તામાંથી લગભગ સુકાઈ ગયેલી ૧૦-૧૨ વનસ્પતિઓના નમૂના સાથે લીધા. ભોજપત્રની બે સૂકી લાકડી લીધી. તોય ૧૨ વાગ્યા સુધી પાછા આવી પહોંચ્યા.
આજે ‘ગંગા દશમી’ છે અહીં આવ્યા પછી જ ખબર પડી. અહીં ગંગા દશેરાનો મોટો મહિમા છે. આખું ગામ શણગારવામાં આવ્યું હતું. ગંગા મંદિરમાં યાત્રિકોની ભીડ સમાતી નહોતી. વર્ષમાં એકવાર ગંગા દશમીના દિવસે મંંદિરમાંથી ગંગાની મૂર્તિ ગંગા કિનારે લવાય. તદ્યોગ્ય અનુષ્ઠાનાદિ થાય. એ બધું બપોરે ૧૨ સુધી તે પછી ગંગાદેવી નિજમંદિરમાં ચાલી જાય. ગંગોત્રી ધામના તમામ સાધુ-બાવા-સંન્યાસી ભેગા થાય. ભંડારા થાય. યોગાનુયોગ આજે બધું અમને જોવા મળ્યું.
આજે સાંજે વિહાર નથી થોડોક થાક ઊતરી જાય પછી યાત્રા આગળ વધે.
આનંદની હેલી વરસાવતા હિમાલયમાં અમે વિચરી રહ્યા છીએ.
એક પ્રસંગ યાદ આવે છે આજથી લગભગ ૨૫૦ વર્ષ પૂર્વે એટલે કે વિ. સં. ૧૮૦૬માં ભૂતાન દેશના એક શ્રાવક. નામ તેમનું લામચીદાસ ગોલાલારે. તેઓએ ભૂતાનથી ચીન-બર્મા-કામરૂપ થઈને અષ્ટાપદની યાત્રા કરી હતી. તે યાત્રામાં તેઓને ૧૮ વર્ષ લાગ્યા હતા. તેમણે આ યાત્રાનું સુંદર વર્ણન मेरी कैलास यात्रा’ નામના પુસ્તકમાં કર્યું છે. યાત્રાવર્ણનના રસીક હૃદયી મિત્રોએ પુસ્તક વાંચવું રહ્યું.
યાત્રાનું વર્ણન એમના જ શબ્દોમાં-
अथ श्री कैलाश पर्वतजी का पत्र लिख्यते। यात्रा निमित्त क्षत्री लामचीदास सूर्यवंशी गोलालारे जैनी दीक्षा समय के पूजक अथवा पंडित सो आगम पढ (बीच) ताने अनुसार विक्रम संवत् 1806 हिन्द महान मुल्क ताकि ईशान दिशा हिमालय पर्वत के समीप भूटान देश में गिरमध्यनगरवासी सो ब्रह्मा, चीन की सैर के निमित्त अथवा दर्शन निमित्त यात्रा को चले। सो कठित व्रत घर के कैलाश के दर्शनो की अभिलाषा करी क्योंकि पक्षी अपने पंखों के बल से निरंजनपुरी देखना चाहे सो वहां देखिये। आखिर अपनी यथाशक्ति से उंचा उडेगा तो मरण ही होगा। सो मैं तुच्छ बुद्धि धर्मयोग शुद्ध मन कर अपने गृह का मोह छोड़ अपने राजा बलवीर्य सिंह बोद्धमती सूर्यवंशी को छोड अथवा अपने भूटान देश गिरमध्यनगर महा सकलकुटुम्ब धर्म समीपी मित्रों को छोड़ प्रथम चल कोस 150 में कामरु देश और वामरु नगर तामें गये जहाँ जादू-मंत्र विद्या का प्रचलित जोर है, तहां से चल पूर्व ओर ब्रह्मा मुल्क में किरीठमदेश कोसीनगर कोस 400 चलके गये, तहां की स्त्रियाँ मुलम्मे का काम बहुत अच्छा कर रहे है शरम हिजाब नाहीं। तहां से पूर्व ओर चले, ब्रह्मा मुल्क में मध्यप्रदेश कोस 200 आवा शहर में गये। इस मुल्क के बादशाह का तस्त इसी नगर में विराजे हैं। सकल देश और राजा बौद्धमती है, तहां से चल पूर्व और ब्रह्मा मुल्क में कपूरीदेश केशवनगर कोस 350 गये, तहां सुगंधित असली अगर तगर कपूर कोइमा (भीमसेनीकपूर) बहुत है। (यो सुगंध और जगह 100) तोले में नहीं है और वहाँ के पहाड़ों में सोने रुपे की खानि है। तहां से चल पूर्व और इसी मुल्क में कोचीन मुल्क की सीमा पर व्हावल पहाड़ ताके घाटेपर हेवानगर कोस 250 गये और इस पहाड़ी पर बाहुबलीजी की प्रतिमा कायोत्सर्ग खड़े योग बड़ी-बड़ी जगह-जगह हैं सो यहाँ के बौद्धमती उनको बाहुबयी गुरु अवतार अपना जान कार्तिक बदी का बड़ा मेला जोड़कर पूजे हैं। उन प्रतिमाओं का एक हाथ उपदेशरुप उठा जानना, तहां से चल कोचीनमुल्क वींदमदेश, होवीनगर कोस 600 गये। इस मुल्क का राजा इसी नगर में राज करे है और सकल मुल्क बौद्धमती है।… सो इन छहों चीन में आठ तरह के जैनी देखने में आये हैं खास चीन में तो तुनावारे जैनी हैं। कोरिया चीन में पातके हैं और घघेलवाल, वाघानारे जैनी हैं। तिब्बत चीन में
सोहनावारे.. फिर वहाँ से चल तिब्बत ही में दक्षिण दिशा की ओर कोस 80 गये वहाँ सुन्दर नानाबन तामें मानसरोवर तहा सुन्दरताल तिसमें तरह-तरह के पक्षी कलोलरुप चकवा चकवी महा मोह के भरे केल करे हैं, ताही वन में दाड़म अखरोट, अमरुद आलुबुखारा अथवा सकल सुगंधभरे फूल होय हैं, मानसरोवर में महा सुन्दर कमल खिल रहे हैं सो उस बन के किनारे पर सिलवन नगर है, ताफा कोट कोस 16 का हैना बाजार दो दो के जानने, उस नगर जैनी जैन पन्थी बसे है, तहाँ हम एक वर्ष रहे और हम दीक्षा समय के पूजक उनके आगम सुन ग्यारह प्रतिमा के धारी भये… सो एक सुहावना थल मानसरोवर की उत्तर की ओर पड़ा हे। तहां कभी पवनंजयकुमार, हनुमान के पिता अपने नगर से चल रावण की मदद को लंका जाती बार उस स्थल पर डेरा करे रहे थे। सो यह बात वहाँ के मनुष्य हमसों कहते थे। अब उस वन में जीवो को बहुत भय है, सो पंचमकाल है, हमने जान बेच दर्शन किये थे और वह तीनों अटाई को 55 चैत्यालय का बहुत मेला भरे हैं, परंतु जीव का भय रहे है। तहां से चल चीन की सीमा मांहि दक्षिण दिसा की ओर हनुवर देश में दस पन्द्रह कोस पर हमको कई पंथियो के तथा वीसपंथियों के बहुत नगर मंदिर आये। सो हमको सब रोकते भये-तुम आगे कहाँ जाओ हो, आगे जाने के ठिकाना नहीं है, बनबेलें बहुत खड़ी हैं वन उद्यान पड़े हैं. पहाडों में रास्ता नहीं पावे है, कैलास दर्शन कठिन हैं, मनुष्य का जाना इस समय दुर्लभ है, सो तुम मत जाओ, पर हमने किसी की एक न मानी… वह वन कैलास की दक्षिण की ओर तले तले पूर्व पश्चिम लम्बा 600, उत्तर दक्षिण चौड़ा कही 20 कोस, कहीं 40 कोस, कहीं 80 कोस जानने और वह हनुवरदेश नगर राजा प्रजा सब जैन जानने, वहां के श्रावक राजा सूर्यवंशी चंद्रवंशी क्षत्री है, जैन के ंमंदिर उस देश में लाखो है। घर इस नगर में 1500 हैं सो कोई दो गज कोई 3 गज का ऊंचा खाली शिखर है, चौक द्वारा नहीं है और कोई मंदिर उनमें महादीरध शिखरबन्द बिराजे वेदी, रत्नजड़ित है मंदिर महामनोज्ञ हैं, बिम्ब शुद्ध विराजे हैं- वेदी सुवर्ण रतनमई है चौदह मणि रत्न लाल रत्न ये चार पाईये हैं। उस देश के मनुष्य उस वन के जीवों से भयवान रहें हैं। सकल नगरों के कोट है सो एक पहरदिन से नगरों के द्वार भिढ जाय है, और उस देश के अथवा नगर के श्रावक हमको देख सब रोकते भये यो बन में मत जाव, कदाचित मर जाव और कहने लगे तुम कयों बावरे भये हो इस वन में कोई जीव सिंह, सार्दूल तुमको भख जायगा तातें हमको कैलाशजो दर्शन 12 मास यहां ही ते होय हैं, सो तुम प्रभात के समय करना, क्योंकि यहां तें 40 कोस तक तो वन है, आगे योग 1 सागरगंग दरिया है और 32 कोस उंचा कैलाश है, सो इस उँचाई पर कुछ दूर नहीं है, कैलाश के दर्शन तो सौ सौ कोसतें होय हैं यहां तो कभी कभी मंदिरो के चिन्ह भी हम में दबे हैं और जब हिम ग्रीष्मऋतु में खिरे है, तव दिखाई दे हैं, सो तुम दर्शन यहां ही से करो आगे मत जावो सो हमने एक न मानी, तब श्रावक चूप हो रहे। हम दर्शनों की अभिलाषा के वश होय नाहर के मुख हाथ घाल विगत प्राण देने से बेडर हो मूढमति विचारी, यो न जानां कि आगे सागरगंग नाला है। चार कोस गहराा चौड़ा जहाँ घाटका निशान नहीं किस विध उतरेंगे। आगे कोस 32 ऊंचा गिर फिर पर्वत की आठ पैडी एक-एक योजन की उंची सौ किस विधि चढेगें, परंतु अपना मरण मान दर्शनयोग वहाँ से चल सहज-सहज मारग प्रभु की अतिशय से उस बन के पार भये। आगे सागरगंग नालापर जाय वीतराग भाव घर खड़े जोगध्यानधर इस विधि आंखड़ीं लई कि जव लों कैलाश के दर्शन नहीं होंगे तबलग आहार, पानी त्याग और सन्यासमरण यहां ही करुुंगा और कदाचित् दर्शन हो भी जाय तो और 23 महाराज की निर्वाणभूमि के दर्शनकर वस्त्र दूर करुंगा, मुनिव्रत धारुंगा, परिषह सहूंगा कदाचित न टरुंगा, वस्त्रत्याग शीतधाम सहूँगा। ईस तपस्या में आहार पानी के त्यागने से दिन 4 मये तब एक व्यंतर कहा दयावान मनुष्य का रुपधर हमसे कहता भया, तुम कौन हो? तब हम कहीं प्रभु के पायक हैं। कैलाश के दर्शन करेंगे तब वह व्यंतर बोला, हे मूर्ख तु बावला है कैलाश के दर्शन कैसे करेगा? जा, यहां से कैलाश के दर्शन नहीं होंगे। तब हम फेर कही हे महाराज तुम कौन हो? जो हमको क्रूर भये हमको बावला कह धक्का देओ हो, और डराओ हो सो मैं बावला नहीं हूं। तुम जो हमको भगवान के दर्शन को मना करो तुम हीनधर्मी हो। तब व्यंतर फिर बोला, है भाइ तु अजान है यह सागरगंग है 4 कोस गहरा है। चौडा नाला है, आगे 32 कोस उंचा गिरि है। तुमको दर्शन कैसे होंगे? तब हम कही हो सो तुम जाओ बोलो नहीं फिर उन हमको तपस्वी जान दयाभावकर कहा तूं आंखमींच तब हमने आंख ढापी (मींची) तब हमको कैलाश पर्वत पर ले जाय सकल दर्शन कराये, पहर दोय में हमको उसी जगह छोड़ गया और दर्शन के वक्त वह व्यंतर सकल भेदवस्तु बतावता भया। मंदिरों की उत्पति टोंक अथवा मेवा, वनस्पति, धातों की खान, मुनों की निर्वाण भूमि, प्रतिमाओं आकार सकल भेद कहां, सो हमको जब वह उसी जगह पर छोड़ गया तब हम पूंछी .महाराज कौन हो उन कही मैं व्यँतर हूँ, खबरदार. सोहनावारे.. फिर वहाँ से चल तिब्बत ही में दक्षिण दिशा की ओर कोस 80 गये वहाँ सुन्दर नानाबन तामें मानसरोवर तहा सुन्दरताल तिसमें तरह-तरह के पक्षी कलोलरुप चकवा चकवी महा मोह के भरे केल करे हैं, ताही वन में दाड़म अखरोट, अमरुद आलुबुखारा अथवा सकल सुगंधभरे फूल होय हैं, मानसरोवर में महा सुन्दर कमल खिल रहे हैं सो उस बन के किनारे पर सिलवन नगर है, ताफा कोट कोस 16 का हैना बाजार दो दो के जानने, उस नगर जैनी जैन पन्थी बसे है, तहाँ हम एक वर्ष रहे और हम दीक्षा समय के पूजक उनके आगम सुन ग्यारह प्रतिमा के धारी भये… सो एक सुहावना थल मानसरोवर की उत्तर की ओर पड़ा हे। तहां कभी पवनंजयकुमार, हनुमान के पिता अपने नगर से चल रावण की मदद को लंका जाती बार उस स्थल पर डेरा करे रहे थे। सो यह बात वहाँ के मनुष्य हमसों कहते थे। अब उस वन में जीवो को बहुत भय है, सो पंचमकाल है, हमने जान बेच दर्शन किये थे और वह तीनों अटाई को 55 चैत्यालय का बहुत मेला भरे हैं, परंतु जीव का भय रहे है। तहां से चल चीन की सीमा मांहि दक्षिण दिसा की ओर हनुवर देश में दस पन्द्रह कोस पर हमको कई पंथियो के तथा वीसपंथियों के बहुत नगर मंदिर आये। सो हमको सब रोकते भये-तुम आगे कहाँ जाओ हो, आगे जाने के ठिकाना नहीं है, बनबेलें बहुत खड़ी हैं वन उद्यान पड़े हैं. पहाडों में रास्ता नहीं पावे है, कैलास दर्शन कठिन हैं, मनुष्य का जाना इस समय दुर्लभ है, सो तुम मत जाओ, पर हमने किसी की एक न मानी… वह वन कैलास की दक्षिण की ओर तले तले पूर्व पश्चिम लम्बा 600, उत्तर दक्षिण चौड़ा कही 20 कोस, कहीं 40 कोस, कहीं 80 कोस जानने और वह हनुवरदेश नगर राजा प्रजा सब जैन जानने, वहां के श्रावक राजा सूर्यवंशी चंद्रवंशी क्षत्री है, जैन के ंमंदिर उस देश में लाखो है। घर इस नगर में 1500 हैं सो कोई दो गज कोई 3 गज का ऊंचा खाली शिखर है, चौक द्वारा नहीं है और कोई मंदिर उनमें महादीरध शिखरबन्द बिराजे वेदी, रत्नजड़ित है मंदिर महामनोज्ञ हैं, बिम्ब शुद्ध विराजे हैं- वेदी सुवर्ण रतनमई है चौदह मणि रत्न लाल रत्न ये चार पाईये हैं। उस देश के मनुष्य उस वन के जीवों से भयवान रहें हैं। सकल नगरों के कोट है सो एक पहरदिन से नगरों के द्वार भिढ जाय है, और उस देश के अथवा नगर के श्रावक हमको देख सब रोकते भये यो बन में मत जाव, कदाचित मर जाव और कहने लगे तुम कयों बावरे भये हो इस वन में कोई जीव सिंह, सार्दूल तुमको भख जायगा तातें हमको कैलाशजो दर्शन 12 मास यहां ही ते होय हैं, सो तुम प्रभात के समय करना, क्योंकि यहां तें 40 कोस तक तो वन है, आगे योग 1 सागरगंग दरिया है और 32 कोस उंचा कैलाश है, सो इस उँचाई पर कुछ दूर नहीं है, कैलाश के दर्शन तो सौ सौ कोसतें होय हैं यहां तो कभी कभी मंदिरो के चिन्ह भी हम में दबे हैं और जब हिम ग्रीष्मऋतु में खिरे है, तव दिखाई दे हैं, सो तुम दर्शन यहां ही से करो आगे मत जावो सो हमने एक न मानी, तब श्रावक चूप हो रहे। हम दर्शनों की अभिलाषा के वश होय नाहर के मुख हाथ घाल विगत प्राण देने से बेडर हो मूढमति विचारी, यो न जानां कि आगे सागरगंग नाला है। चार कोस गहराा चौड़ा जहाँ घाटका निशान नहीं किस विध उतरेंगे। आगे कोस 32 ऊंचा गिर फिर पर्वत की आठ पैडी एक-एक योजन की उंची सौ किस विधि चढेगें, परंतु अपना मरण मान दर्शनयोग वहाँ से चल सहज-सहज मारग प्रभु की अतिशय से उस बन के पार भये। आगे सागरगंग नालापर जाय वीतराग भाव घर खड़े जोगध्यानधर इस विधि आंखड़ीं लई कि जव लों कैलाश के दर्शन नहीं होंगे तबलग आहार, पानी त्याग और सन्यासमरण यहां ही करुुंगा और कदाचित् दर्शन हो भी जाय तो और 23 महाराज की निर्वाणभूमि के दर्शनकर वस्त्र दूर करुंगा, मुनिव्रत धारुंगा, परिषह सहूंगा कदाचित न टरुंगा, वस्त्रत्याग शीतधाम सहूँगा। ईस तपस्या में आहार पानी के त्यागने से दिन 4 मये तब एक व्यंतर कहा दयावान मनुष्य का रुपधर हमसे कहता भया, तुम कौन हो? तब हम कहीं प्रभु के पायक हैं। कैलाश के दर्शन करेंगे तब वह व्यंतर बोला, हे मूर्ख तु बावला है कैलाश के दर्शन कैसे करेगा? जा, यहां से कैलाश के दर्शन नहीं होंगे। तब हम फेर कही हे महाराज तुम कौन हो? जो हमको क्रूर भये हमको बावला कह धक्का देओ हो, और डराओ हो सो मैं बावला नहीं हूं। तुम जो हमको भगवान के दर्शन को मना करो तुम हीनधर्मी हो। तब व्यंतर फिर बोला, है भाइ तु अजान है यह सागरगंग है 4 कोस गहरा है। चौडा नाला है, आगे 32 कोस उंचा गिरि है। तुमको दर्शन कैसे होंगे? तब हम कही हो सो तुम जाओ बोलो नहीं फिर उन हमको तपस्वी जान दयाभावकर कहा तूं आंखमींच तब हमने आंख ढापी (मींची) तब हमको कैलाश पर्वत पर ले जाय सकल दर्शन कराये, पहर दोय में हमको उसी जगह छोड़ गया और दर्शन के वक्त वह व्यंतर सकल भेदवस्तु बतावता भया। मंदिरों की उत्पति टोंक अथवा मेवा, वनस्पति, धातों की खान, मुनों की निर्वाण भूमि, प्रतिमाओं आकार सकल भेद कहां, सो हमको जब वह उसी जगह पर छोड़ गया तब हम पूंछी .महाराज कौन हो उन कही मैं व्यँतर हूँ, खबरदार.

 

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